अकेला था, अकेला हूँ, अकेला ही जाऊँगा,
करता फ़िर रहा जो इकठ्ठा कहाँ ले जाऊँगा
सब यहीं पर था, यहीं पर है, यहीं रह जायेगा,
शायद ही किसी को मेरा नाम याद रह पायेगा!
मगर फ़िर भी इच्छा यही है की इस को, उस को, और न जाने किस किस को अपना कह सकूं मैं,
इसी इकठ्ठा करने की एक अजीब सी कशिश में, क्यूँ न ख़ुद को खुश रख सकूँ मैं!
पैसे का क्या वोह तो आज अगर मेरी जेब में तो कल किसी और की जेब में जायेगा,
अरे मन इतना समझ ले की यह जो वक्त बीत रहा है ये न फ़िर वापस आयेगा!!
Monday, July 28, 2008
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2 comments:
सुंदर काव्य, मन की अनुभूतियां सशक्त तरीके से व्यक्त की गई हैं. सचमुच जीवन की mundane चीज़ें उतना मायने नहीं रखतीं जितना हम सोचते हैं.
क्यों न एक हिन्दी ब्लाग शुरु करिये जिसमे सिर्फ हिन्दी पर ही लिखें जिसे मैं ब्लागवाणी पर जोड़ पाऊं.
वैसे जल्द ही मैं ब्लागवाणी में हिन्दी filter बना रहा हूं जिसके बाद इस ब्लाग को भी जोड़ पायेंगे.
Bahut sundar bahut kuch bahut kam me ...khoob hai
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